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छत्तीसगढ़ी लोककला और संस्कृति के नायक: दाऊ रामचन्द्र देशमुख, दाऊ महासिंह चन्द्राकर और दुलारसिंह मंदराजी

छत्तीसगढ़ की लोककला और संस्कृति के समर्पित रचनाकारों की बात करते समय, तीन महत्वपूर्ण नाम हमेशा उभरकर सामने आते हैं—दाऊ रामचन्द्र देशमुख, दाऊ महासिंह चन्द्राकर और दुलारसिंह मंदराजी। इन महान व्यक्तित्वों ने छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर को संजोने और उसे नई पहचान दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आइए, हम इनके योगदान और लोककला के प्रति उनके समर्पण को विस्तार से जानें।

दाऊ रामचन्द्र देशमुख: छत्तीसगढ़ी संस्कृति के जागरूक संरक्षक

दाऊ रामचन्द्र देशमुख का जीवन छत्तीसगढ़ी कला और संस्कृति के प्रति पूर्ण समर्पण का प्रतीक है। उन्होंने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए, जिससे छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत को एक नया आयाम मिला।

चंदैनी गोंदा की शुरुआत

दाऊ रामचन्द्र ने ‘चंदैनी गोंदा’ नामक मंच की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य छत्तीसगढ़ की कला और कलाकारों को एक नया मंच प्रदान करना था। उन्होंने कहा, “कला का सच्चा उद्देश्य समाज को जागरूक करना और उसकी संवेदनाओं को व्यक्त करना है।” यह मंच बहुत जल्द ही लोकप्रिया हो गया और इसे छत्तीसगढ़ी सांस्कृतिक जागरण का प्रतीक माना गया।

मुख्य योगदान:

  • चंदैनी गोंदा ने कई प्रतिभाशाली कलाकारों को आगे बढ़ने का अवसर दिया, जैसे लक्ष्मण मस्तूरिया और खुमान साव।
  • इसके माध्यम से छत्तीसगढ़ के किसानों की पीड़ा और गांवों के दुख-दर्द को गीतों में प्रस्तुत किया गया।

देहाती कला विकास मंडल की स्थापना

देशमुख जी ने 1951 में ‘देहाती कला विकास मंडल’ की स्थापना की। उनका उद्देश्य ग्रामीण कलाओं को प्रोत्साहित करना और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाना था।

दाऊ महासिंह चन्द्राकर: छत्तीसगढ़ी लोककला के संवाहक

दाऊ महासिंह चन्द्राकर का नाम छत्तीसगढ़ी लोककला के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाता है। उन्होंने कहा, “लोककला हमारी आत्मा है। इसे जीवित रखना हम सभी की जिम्मेदारी है।”

लोककला के विभिन्न रूपों का मंचन

उन्होंने छत्तीसगढ़ी के सुवा, करमा, ददरिया, और नाचा-गम्मत जैसे लोकनृत्य और गीतों को आकाशवाणी और दूरदर्शन के माध्यम से प्रसारित किया।

प्रमुख योगदान:

  • उनका उद्देश्य छत्तीसगढ़ की असली सांस्कृतिक पहचान को जनमानस के सामने लाना था।
  • उन्होंने पारंपरिक धरोहर को बचाए रखने के लिए लोककला के विभिन्न रूपों में सुधार किया और नई पीढ़ी तक पहुँचाया।

दुलारसिंह मंदराजी: नाचा लोकसंस्कृति के भीष्म पितामह

दुलारसिंह मंदराजी को छत्तीसगढ़ी नाचा लोकसंस्कृति का भीष्म पितामह कहा जाता है। उन्होंने नाचा के माध्यम से छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित किया। उन्होंने बताया, “नाचा सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है।”

नाचा का महत्व

नाचा छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचलों की सांस्कृतिक पहचान है। मंदराजी ने अपने गांव रेवली में नाचा को एक नए रूप में प्रस्तुत किया, इसे केवल मनोरंजन के साधन के रूप में नहीं, बल्कि सांस्कृतिक माध्यम के रूप में देखा।

छत्तीसगढ़ी लोककला की वर्तमान स्थिति

आज छत्तीसगढ़ की लोककला और संस्कृति देश और दुनिया में अपनी अलग पहचान बना चुकी है। हालांकि, बदलते समय के साथ कई पारंपरिक कलाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं।

सांस्कृतिक संरक्षण की आवश्यकता

छत्तीसगढ़ की लोककला और संस्कृति को संरक्षित करने के लिए हमें अपने पुरखों की धरोहर को संजोकर रखना होगा। नई पीढ़ी को इस कला से जोड़ने के लिए जागरूकता फैलानी होगी।

निष्कर्ष

दाऊ रामचन्द्र देशमुख, दाऊ महासिंह चन्द्राकर और दुलारसिंह मंदराजी ने छत्तीसगढ़ की लोककला को अपने अथक परिश्रम और समर्पण से एक नई पहचान दिलाई। उनकी यह विरासत आज भी जीवंत है, और हमें उनके कार्यों से प्रेरणा लेकर छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक धरोहर को संजोने का कार्य करना चाहिए।

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