छत्तीसगढ़

धमतरी जिले का एक ऐसा गांव जहां होली, चिता और रावण दहन नहीं होता – गांव की अजीबोगरीब परंपरा

Dhamtari: छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले के तेलीनसत्ती गांव की परंपराएं बेहद अनोखी और दिलचस्प हैं। यहां 12वीं शताब्दी से होलिका दहन, दाह संस्कार और रावण दहन की परंपरा नहीं निभाई जाती। जानिए इस गांव की धार्मिक मान्यताओं और अजीबोगरीब परंपराओं के बारे में, जो आज भी इस गांव में पूरी श्रद्धा से निभाई जा रही हैं।

धमतरी के तेलीनसत्ती गांव की अनोखी परंपरा

छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में स्थित तेलीनसत्ती गांव अपनी अनोखी परंपराओं के लिए प्रसिद्ध है। यहां की परंपराएं न केवल गांव के इतिहास को संरक्षित करती हैं, बल्कि यह गांव की धार्मिक और सांस्कृतिक धारा को भी दर्शाती हैं। खास बात यह है कि इस गांव में न तो होली के दिन होलिका दहन होता है, न ही यहां किसी की मृत्यु के बाद चिता जलाने की परंपरा है, और न ही यहां दशहरे के दिन रावण का दहन किया जाता है। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और आज भी गांव के लोग इसे पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ निभा रहे हैं।

होलिका दहन न करने की पीछे की कहानी

तेलीनसत्ती गांव में होलिका दहन न करने की एक दिलचस्प और दुखद कहानी जुड़ी हुई है। गांव के बुजुर्गों के अनुसार, एक समय गांव में भानुमति नाम की एक महिला थी, जो अपने परिवार की इकलौती बेटी थी। उसकी शादी तय हो चुकी थी, लेकिन गांव के एक तांत्रिक ने सलाह दी कि प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए उसे अपनी होने वाली शादी के दूल्हे की बलि चढ़ानी होगी। इस सलाह के बाद, उसके भाइयों ने अपने बहन के होने वाले पति की बलि दे दी। यह घटना भानुमति के लिए बहुत ही दर्दनाक थी और उसने खुद को आग में झोंक कर सती हो जाने का निर्णय लिया।

इस घटना के बाद से गांव के लोगों ने तय किया कि वे कभी होलिका दहन नहीं करेंगे, ताकि भानुमति की आत्मा को शांति मिल सके। यह परंपरा आज भी पूरी तरह से कायम है, और इस गांव के लोग इसे अपने पूर्वजों का आशीर्वाद मानते हुए निभाते आ रहे हैं।

तेलीनसत्ती मंदिर और महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित

भानुमति की याद में गांव में एक मंदिर भी स्थापित किया गया है, जिसे तेलीनसत्ती माता का मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर में लोग नियमित रूप से पूजा करते हैं, लेकिन एक खास बात यह है कि यहां महिलाओं का प्रवेश प्रतिबंधित है। दरअसल, भानुमति ने बिना शादी किए खुद को सती कर लिया था, और इस कारण से मंदिर में केवल पुरुष ही पूजा कर सकते हैं, जबकि शादीशुदा महिलाओं को इस मंदिर में जाने की अनुमति नहीं है। यह परंपरा आज भी बरकरार है।

दाह संस्कार की अनोखी परंपरा

तेलीनसत्ती गांव में दाह संस्कार की परंपरा भी बेहद अजीब है। यहां पर किसी भी मृतक का दाह संस्कार गांव में नहीं किया जाता। गांववासियों का मानना है कि भानुमति की आत्मा अपने सपनों में आकर दाह संस्कार करने से मना करती थी। यही कारण है कि जब गांव में कोई व्यक्ति मर जाता है तो उसका अंतिम संस्कार गांव के बाहर किसी अन्य गांव में किया जाता है। यह परंपरा कई शताब्दियों से निभाई जा रही है।

दशहरे पर रावण दहन न करना

तेलीनसत्ती गांव में दशहरे पर भी रावण का दहन नहीं किया जाता। यहां के लोग मानते हैं कि यह परंपरा नहीं निभाने पर गांव में विपत्तियां आ सकती हैं। इस तरह, यहां के लोग अपनी सांस्कृतिक परंपराओं का पालन करते हुए दशहरे के दिन रावण दहन के बजाय अपनी प्राचीन आस्थाओं में विश्वास रखते हैं।

परंपरा का महत्व और पर्यावरण संरक्षण

तेलीनसत्ती गांव की यह परंपरा न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह पर्यावरण संरक्षण में भी अहम योगदान देती है। यहां की परंपराओं में होलिका दहन, दाह संस्कार और रावण दहन जैसे क्रियाकलापों से जो लकड़ी जलती थी, उससे पर्यावरण को नुकसान हो सकता था। लेकिन तेलीनसत्ती गांव में इन क्रियाओं का त्याग करके, गांव ने प्राकृतिक संसाधनों की बचत की है और पर्यावरण को संरक्षित रखने की दिशा में एक सकारात्मक कदम उठाया है।

इस गांव के लोग मानते हैं कि इन परंपराओं का पालन करने से न केवल उनकी धार्मिक मान्यताएं पूरी होती हैं, बल्कि यह उनके पर्यावरणीय कर्तव्यों का भी पालन है। होली के दिन जब होलिका दहन नहीं किया जाता, तो लाखों टन लकड़ी जलने से बच जाती है, जो प्राकृतिक संसाधनों को बचाने में मदद करता है। इसी तरह, जब कोई मृतक का दाह संस्कार गांव के बाहर किया जाता है, तो यह भी जंगलों और वनस्पतियों को बचाने का एक तरीका है।

इस प्रकार, तेलीनसत्ती गांव की परंपराएं न केवल उनके सांस्कृतिक और धार्मिक विश्वासों का प्रतिनिधित्व करती हैं, बल्कि पर्यावरणीय संरक्षण के लिहाज से भी बहुत मायने रखती हैं। यह गांव एक आदर्श प्रस्तुत करता है कि कैसे पुरानी परंपराओं को आधुनिक पर्यावरणीय चुनौतियों से जोड़कर संरक्षित किया जा सकता है।

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